आइए, रिश्तों को रिचार्ज करते हैं.. होते हैं कछ रिश्तों के/कछ रिश्ते नाम के होते हैं। रिश्ता वह अगर मर जाए भी/ बस नाम से जीना होता है। बस नाम से जीना होता है। रिश्ते बस रिश्ते होते हैं. लजार की इन पंक्तियों में हम अक्सर रिश्तों को खोजने लगते हैं। रिश्ते कोई भी हों, उनके मायने हैं। जन्म लेते ही पहला रिश्ता उस मां के साथ जिसने नौ माह तक कोख में रखा। पिता के साथ जिन्होंने वक्त के थपेड़ों से जूझना सिखाया। भाई और बहन के बीच अपनत्व का रिश्ता। दादा-दादी, चाचा-चाची, मामा-भांजा, बुआ-फूफा, दोस्त और सहकर्मीयुवा होने पर विवाह के बाद खास रिश्ता पति और पत्नी का। और भी खूब सारे रिश्ते हैं। सवाल यह है रिश्तों की बुनियाद कमजोर क्यों पड़ने लगी? सबसे पहले माता-पिता के रिश्ते को टटोलिए। अगर आप कामकाजी हैं तो दिल पर हाथ रखकर बताइए कि आप अपने बच्चों को कितना वक्त दे पा रहे हैं? आर्थिक वैश्वीकरण का दौर है। सरकारी अफसर हैं या फिर किसी कॉरपोरेट जगत मेंआठ से बारह घंटे की नौकरी लाजिमी हैदो घंटे का वक्त संस्थान तक आने-जाने में जोड़ दीजिए। यह अवधि 14 घंटे तक हो जाती है। बाकी बचे दस घंटे तो उसमें से भी फेसबुक, ट्विटर, टीवी, अखबार और मोबाइल फोन वक्त जाया करने के लिए तैयार। यानी बच्चों के लिए टाइम निकालना मुश्किल हो रहा है। कहते हैं परिवार ही बच्चों का पहला स्कूल है। इस पाठशाला में हमने अपने बच्चों को क्या दिया? खासकर संस्कार के नाम पर? संयुक्त परिवार का रिवाज बस नाम के लिए है। सिर्फ प्रोफेशनल लाइफ को इसका कारण मानना सच्चाई से मुंह मोड़ना भर हैएक कॉलोनी में रहते हैं लेकिन अलग-अलग। आखिर क्यों? कारण इतना भर कि हर किसी में ईगो प्रोब्लॉम है। सहनशक्ति खत्म हो गई। सब के सब ज्ञानी हो गए। इतने बड़े ज्ञानी कि अज्ञानता की पराकाष्ठा को लांघने लगे। परिवार का मतलब पति, पत्नी और एक-दो बच्चे। परिवार की परिभाषा बदल दी हमनेदुष्परिणाम देखिए। शादी के कुछ दिन बाद ही तलाक की नौबत आने लगी है। लड़कियां अपने आपको नए परिवार में एडजस्ट नहीं कर पातीं। किसी भी नई जगह पर एक बार वहां के माहौल को समझने में वक्त लगता है। फिर उसके अनुरूप ढलने की कोशिश। सच तो यह है कि भावनाओं को समझने का दायित्व दोनों पक्षों का होता है। यहां पर कोई तैयार नहीं। आखिरकार, रिश्ते दम तोड़ने लगते हैं। हर रिश्ते की अहमियत है। पवित्रता है। वफादारी है। उसे पूरी ईमानदारी से निभाने की जरूरत हैदायित्वों से बंधा है हर रिश्ता। परेशानी तब आती है जब एक-दूसरे की भावनाओं की अनदेखी की जाती है। आमतौर पर शादी के वर्षों बाद तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। सात जन्मों तक साथ निभाने का संकल्प लेने वाले सात महीने या सात साल तक साथ नहीं रह पाते। परस्पर दोषारोपण कर वे रिश्ते के अटूट बंधन से मुक्ति के लिए छटपटाने लगते हैंअपनी कमियों को नहीं गिनते, उन्हें तो लाइफ पार्टनर में बेशुमार बुराइयां नजर आने लगती हैं। बेहतर होगा कि हम अपनी कमियों को गिनें और उसे दूर करने का प्रयास करें। अगर सब के सब खुद की कमियां दूर करने में लग जाएं तो यकीन मानिए, उन्हें दूसरों की कमियां नजर ही नहीं आएंगी। फिर उस पर टीका टिप्पणी करने के लिए वक्त ही नहीं मिलेगा। अब आप ही बताइए, विवाद को फटकने के लिए मौका मिलेगा क्या? दरअसल, रिश्तों की बुनियाद खोखली हुई है तो अविश्वास की लहलहाती फसलों के कारण। चरित्रहीनता की बढ़ती घटनाओं के कारण। हम तेजी से महत्वाकांक्षी होते जा रहे हैंइसकी एवज में कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। सब कुछ लुटने के बाद पाने के लिए बचता ही क्या है? बदनामी, उजड़ी हुई दुनिया, तबाह जिंदगी और आखिर में जेल की सलाखेंखैर, रिश्तों में आई खटास को तत्काल दूर कीजिए। गलती सब करते हैं लेकिन उसे स्वीकार करने वाला बड़ा होता है। क्योंकि वह गलती के बाद होने वाली तबाही की आहट को महसूस कर लेता है, इसलिए वह समझदार हैसॉरी शब्द छोटा नहींजिंदगी को उजड़ने से बचा सकता है। शर्त यह कि वह दिल से निकला हुआ हो, दिखावे के लिए नहीं। तो आइए, अपने रिश्तों को फिर से रिचार्ज करते हैं।
आइए, रिश्तों को रिचार्ज करते हैं..